क्या आप जानते हैं मेण्डल एवं मेण्डलवाद क्या है एवं वंशागति के नियम के बारे में अगर आपने नहीं पढ़ा यह पोस्ट आपके लिए जरूरी है अक्सर आपको मेण्डलवाद के बारे में बायोलॉजी विषय में पढ़ने के लिए मिलता है और आज हम इसी टॉपिक को पूरा करने वाले हैं जिसमें सभी छोटे-छोटे टॉपिक को भी क्लियर किया गया है इसमें हमने वंशागति, मेण्डलवाद के विचलन, विकास एवं विकास के सिद्धांत के बारे में भी नोट्स उपलब्ध करवा दिए हैं जिन्हें आप निशुल्क पढ़ सकते हैं
मेण्डल एवं मेण्डलवाद
– मेण्डल का पूरा नाम – ग्रेगर जॉन मेण्डल
– जन्म – वर्ष 1822 – ऑस्ट्रिया के हेजनडॉर्फ प्रांत के सिलिसिपा गाँव में।
– भौतिक शास्त्र (Physics), वनस्पति शास्त्र (Botany) एवं दर्शन शास्त्र (Philosophy) का अध्ययन
– ब्रून शहर में चर्च में पादरी/Priest के रूप में कार्य किया।
– 1856-1863 तक 7 वर्षों में उद्यान-मटर/पाइसम सेटाइवम पर संकरण प्रयोग किए।
– 1866 में मेण्डल ने अपने प्रयोगों व निष्कर्षों को “Experiments in plants hybridisation” शीर्षक से प्रकाशित करवाया लेकिन मेण्डल के कार्यों को पहचान नहीं मिली।
– वर्ष 1884 में मेण्डल की मृत्यु हुई।
– वर्ष 1900 में मेण्डल के कार्यों की पुन: खोज तीन वैज्ञानिकों जर्मनी के कार्ल कॉरेन्स, ऑस्ट्रिया के वॉन शेरमांक तथा नीदरलैण्ड के ह्यूगो-डी-व्रीज द्वारा की गई।
– इन तीनों वैज्ञानिकों ने मेण्डल के कार्यों को सही पाया तथा कार्ल कॉरेन्स ने इन्हें नियमों का रूप दिया।
– मेण्डल ने मटर के अलावा राजमा / फेसियोलिस वल्गेरिस एवं हॉकवीड / हिरेशियम पर भी संकरण प्रयोग किए।
वंशागति के नियम (Laws of inheritance)
(1) प्रथम नियम / प्रभाविता का नियम (Law of dominance)-
– जब किसी जीव में किसी लक्षण के दो विपरीत एलील उपस्थित हों तो उनमें से केवल एक ही एलील का प्रभाव प्रकट होता है, जिसे प्रभावी एलील कहते हैं तथा अन्य एलील जिसका प्रभाव प्रकट न हो अप्रभावी एलील कहलाता है।
IA IB – AB – मेण्डल के प्रभाविता नियम का अपवाद।
– इस नियम के अनुसार संतानों में उपस्थित कारकों के जोड़े में से एक कारक नर तथा दूसरा मादा से आता है।
– इन कारकों में से एक कारक का गुण दूसरे कारक के गुण को छुपा देता है, उसे प्रभावी लक्षण (Dominant character) तथा छुप जाने वाले गुण को अप्रभावी लक्षण (Recessive character) कहते हैं।
– प्रथम पीढ़ी (F1 generation) में केवल प्रभावी लक्षण ही दिखाई देता है लेकिन अप्रभावी गुण उपस्थित अवश्य रहता है, जो दूसरी पीढ़ी (F2 generation) में दिखाई देता है।
उदाहरण : मनुष्य की काली आँख का रंग नीली आँख पर प्रभावी है
– काले बाल, लाल बाल पर प्रभावी है, वर्णीत्वचा, अवर्णीत्वचा पर प्रभावी होती है।
– खरगोश में बालों का काला रंग सफेद रंग पर प्रभावी होता हैं।
– चूहों का सामान्य आकार बौने आकार पर प्रभावी होता हैं।
(2) वंशागति का द्वितीय नियम/विसंयोजन का नियम/पृथक्करण का नियम :-
– जब जीवों में युग्मक निर्माण होता है तो लक्षण का प्रत्येक एलील अलग अलग युग्मकों में चला जाता है, अर्थात् युग्मक किसी भी लक्षण के लिए हमेशा शुद्ध होता है। (युग्मकों की शुद्धता का नियम)
– युग्मक अगुणित (n) होता है अत: एक ही युग्म विकल्पी जीन प्राप्त होता है। अत: प्रत्येक युग्मक शुद्ध होता है, इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम (law of purity of gametes) भी कहते हैं।
(3) वंशागति का तृतीय नियम/स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम:-
– दो या दो से अधिक लक्षणों की वंशागति एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में होती है।
– इस नियम के अनुसार जब दो या दो से अधिक जोड़ी विपरीत लक्षणों वाले पौधे में क्रास (संकरण) करवाया जाता हैं, तो समस्त लक्षणों की वंशागति स्वतन्त्र रूप से होती हैं, अर्थात् एक लक्षण की वंशागति पर दूसरे लक्षण की उपस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता हैं। अत: इसे स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम कहते हैं।
मेण्डलवाद के विचलन
i. जब मिराविलिस जलापा (Mirabilis jalap) के लाल पुष्प वाले पौधों का संकरण सफेद पुष्प वाले पौधे से कराया गया तो पहली पीढ़ी में सभी गुलाबी पुष्प वाले पौधे 1:2:1 के अनुपात में प्राप्त हुये।
ii. ऐसा लाल पुष्प के गुण के पूर्णरूपेण प्रभावी न होने के कारण हुआ। इस प्रकार जब कोई प्रभावी गुण जोड़े के दूसरे गुण को पूरी तरह से दबा नहीं पाता तो उसे अपूर्ण प्रभाविता कहते हैं। ऐसी ही उदाहरण स्नेपड्रेगन, एंटीराइनम मेजस (Antirhinum majus) में भी देखने को मिलता है।
iii. सहलग्नता वंशागति के तृतीय नियम का अपवाद है।
iv. प्रभावी व अप्रभावी दोनों एलील जब स्वतन्त्र रूप से अपनी अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं, तो उसे सहप्रभाविता कहते हैं।
F1 पीढ़ी में प्रभावी एवं अप्रभावी जीनों की बराबर अभिव्यक्ति होती हैं।
v. मनुष्यों में रुधिर वर्ग एक सहप्रभाविता का उदाहरण है।
नोट –
– टी एच मॉर्गन ने ड्रोसोफिला (फल मक्खी) में सहलग्नता की खोज की।
– सहलग्न जीन संतानों में साथ साथ वंशानुगत होते हैं।
वंशागति का गुणसूत्री सिद्धांत
वंशागति का गुणसूत्री सिद्धांत थियोडोर बोवेरी एवं वॉल्टर सट्टन ने प्रस्तुत किया था।
इस सिद्धान्त के अनुसार:-
i. लैंगिक जनन (Sexual Reproduction) करने वाले जीवों में गुणसूत्र समजात जोड़ों (Homologis pair) के रूप में पाए जाते हैं।
ii. युग्मक निर्माण के दौरान ये गुणसूत्र अलग-अलग युग्मकों (gametes) में चले जाते हैं।
iii. गुणसूत्रों (Chromosomes) पर जीन रेखीय क्रम (linear sequence) में व्यवस्थित होते हैं।
– लिंग-निर्धारण का गुणसूत्री सिद्धांत (Chromosal theory of Sex determination)
– मैक्लंग ने ये सिद्धान्त दिया।
– मनुष्य की एक कोशिका में 46 या 23 जोड़े गुणसूत्र पाए जाते हैं। इन 23 गुणसूत्रों में से नर तथा मादा दोनों के 22 जोड़े गुणसूत्र एक समान होते हैं इन्हें ओटोसोम्स (Autosomes) कहते हैं।
मादा के 23वें जोड़े के दोनों गुणसूत्र एक समान लेकिन नर के ये दोनों गुणसूत्र असमान होते हैं। इनमें से एक लम्बा तथा एक छोटा होता है। लम्बे को X तथा छोटे को Y से व्यक्त करते हैं। अर्थात् नर के 23 वे जोडे़ को लिंग गुणसूत्र (Sex Chtomosome) कहते हैं ये ही संतान के लिंग को निर्धारित करते हैं।
– जीवों में लिंग निर्धारण उस जीव पर निर्भर करता है, जिसमें अलग अलग प्रकार के युग्मक बनते हैं अर्थात् विषमयुग्मकी जीव।
– मनुष्यों में नर विषमयुग्मकी (xy) जबकि मादा समयुग्मकी (xx) अत: शिशु का लिंग निर्धारण नर के द्वारा होता है, ऐसा लिंग निर्धारण (नर के द्वारा) उभयचरों, मछलियों व कीटों में भी होता है।
– पक्षियों एवं सरीसृपों में लिंग निर्धारण मादा सदस्य द्वारा अर्थात् इनमें नर (zz/समयुग्मकी) जबकि मादा (zw/विषमयुग्मकी) की होती है।
– पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ से लेकर वर्तमान समय तक जीवों की अनेक नई प्रजातियाँ विकसित हुई हैं, कई प्रजातियाँ विलुप्त हुई हैं तथा इनमें सतत रूप से परिवर्तन भी हुए हैं।
इसे ही विकास / Evolution कहते हैं, जो कि धीमे लेकिन सतत रूप से चलने वाली प्रक्रिया है।
विकास (Evolution)
– जीवन की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत :-
– धार्मिक सिद्धांत :- – इनके अनुसार किसी सर्वोच्च शक्ति के कारण पृथ्वी पर मनुष्य एवं अन्य जीवों की उत्पत्ति।
– अजीवात जीवोत्पत्ति सिद्धांत :- निर्जीव वस्तुओं से सजीवों की उत्पत्ति स्वत: ही हो जाती है। जैसे : नील नदी के कीचड़ पर सूर्य का प्रकाश गिरने से इस कीचड़ में कई उभयचर / Amphibians की उत्पत्ति होती है।
– वॉन हेलमॉण्ट के अनुसार पसीने से भरी शर्ट में गेहूँ लपेटकर रखने पर उसमें चूहे पैदा हो जाते हैं।
– समर्थक :- वॉन हेलमॉण्ट, एम्पीडोक्लीज, थेल्स, एनॉक्सीमेण्डर।
– जीवात जीवोत्पत्ति सिद्धांत :- इस सिद्धांत के अनुसार किसी जीव की उत्पत्ति निर्जीव वस्तुओं से न होकर पहले से स्थित सजीवों से ही होती है।
– इस सिद्धांत को प्रायोगिक रूप से लुई पाश्चर, रेडी व स्प्लैजॉनी ने अलग-अलग दर्शाया है।
– लुई पाश्चर ने ‘Swan Neck Flask Experiment’ के द्वारा इसे समझाया।
– रासायनिक विकास का सिद्धांत / Theory of Chemical Development
– A. I. ओपेरिन एवं J. B. S. हेल्डेन।
– इसके अनुसार पृथ्वी के प्रारंभिक वातावरण में मुक्त O2 गैस नहीं थी, अत्यधिक तापमान से पृथ्वी धीरे-धीरे ठंडी होने लगी तो संघनन की क्रिया के कारण बादल बने एवं पृथ्वी पर जलाशय बनने लगे।
– लाखों वर्षों में इस जल में कई गैसें घुलने लगीं, लगातार बिजली चमकती रहने से इनमें उपस्थित पदार्थों में रासायनिक परिवर्तन हुए।
– C, H व O के जुड़ने से कार्बोहाइड्रेट एवं वसा का निर्माण हुआ, इसके बाद इनमें N, S व P भी जुड़ने से प्रोटीन जैसे अणुओं का निर्माण हुआ।
– लगातार इन जैविक अणुओं में परिवर्तन होते गए तथा अब न्यूक्लिक अम्ल जैसे जटिल जैव अणु बने जिनमें अपने समान नए अणु बनाने की क्षमता थी, जल में उपस्थित अन्य पदार्थ इनके चारों ओर एकत्रित हुए तथा प्रारंभिक कोशिका (Primitive Cell) जैसी संरचना बनी, यहीं से जीवन का प्रारंभ हुआ।
– ये प्रारंभिक जीव एककोशिकीय एवं अनॉक्सी जीव था।
– रासायनिक विकास के सिद्धांत को स्टेनले मिलर एवं यूरे ने प्रायोगिक रूप सत्यापित किया।
इन्होंने एक फ्लास्क में मीथेन (CH4), अमोनिया (NH3), व हाइड्रोजन (H2) को 2:1:2 में लेकर इसमें जलवाष्प का प्रवाह किया तथा मिश्रण में उच्च वोल्टता की धारा प्रवाहित की।
– लगभग 21 दिनों बाद मिलर ने इस मिश्रण में न्यूक्लिक अम्ल जैसे पदार्थों की उपस्थिति देखी।
– इससे यह सिद्ध हुआ कि रासायनिक रूप से ही जल में जीवन की उत्पत्ति हुई है।
विकास के सिद्धांत
(1) लैमार्कवाद :-
– जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क ने प्रस्तुत किया।
– जीवों में उपार्जित लक्षणों की वंशागति होती है तथा ये उपार्जित लक्षण ही नए लक्षणों का विकास करते हैं।
– लैमार्क ने अपने सिद्धांत के पक्ष में जिराफ की गर्दन की लम्बाई बढ़ने का प्रमाण प्रस्तुत किया।
– लैमार्कवाद के विपक्ष में भारतीय महिलाओं में नाक/कान छिदवाने का उदाहरण है, जिसमें संतानों में नाक व कान छिदे हुए नहीं होते।
(2) डार्विनवाद / प्राकृतिक वरण का सिद्धांत :-
– प्राकृतिक विज्ञानी – डार्विन
– H. M. S. बीगल नामक जहाज कई द्वीप समूहों (जैसे – गेलापैगॉस) की यात्राएँ की।
– डार्विन के अनुसार वे जीव जो बदलते हुए वातावरण में स्वयं में नए लक्षण विकसित कर लेते हैं, संघर्ष की स्थिति में ऐसे ही जीव अपनी उत्तरजीविता बनाए रखते हैं, इसे ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ कहते हैं।
– ऐसे योग्यतम जीवों को ही प्रकृति विकसित होने के अवसर प्रदान करती है। इसे ‘प्राकृतिक वरणवाद’ भी कहते हैं।
– डार्विन नए लक्षणों की उत्पत्ति का कारण नहीं बता पाए।
(3) जनन द्रव्यवाद :-
– बीजमैन ने प्रस्तुत किया।
– 21 पीढ़ियों तक चूहों की पूँछ काटी लेकिन 22वीं पीढ़ी के चूहे में पूँछ उतनी ही लंबी।
– बीजमैन के अनुसार जीवों के शरीर में दो प्रकार के द्रव्य – जनन द्रव्य एवं कायिक द्रव्य होते हैं।
– बीजमैन के अनुसार केवल जननद्रव्य में होने वाले परिवर्तन ही संतानों में वंशानुगत होते हैं।
(4) उत्परिवर्तनवाद :-
– ह्यूगो-डी-व्रीज ने प्रस्तुत की।
– इनके अनुसार नए लक्षण केवल उत्परिवर्तन से ही विकसित होते हैं।
– नए लक्षण केवल उत्परिवर्तन से विकसित नहीं होते हैं।
– नव-डार्विनवाद
– इसके अनुसार जीवों की विकास प्रक्रिया लगातार चलने वाली क्रिया है, जिसमें जीव वातावरण के अनुसार स्वयं में नए लक्षणों का विकास करता है, ये नए लक्षण – उपार्जित लक्षणों की वंशागति से, उत्परिवर्तन से, लैंगिकजनन से तथा वातावरण के कारण जीवों में विकसित होते हैं।
– विकास के प्रमाण –
1. जीवाश्मों में मिलने वाली समानता (जीवाश्म-विज्ञान से) – Palentology भी कहते हैं।
2. Embryology (भ्रूण के अध्ययन)
3. समजात अंग – अपसारी विकास
– जन्तुओं के शरीर में पाई जाने वाली वे संरचनाएँ जो संरचना व उद्भव में समान होती है तथा उनके कार्य भिन्न- भिन्न होते हैं, समजात अंग कहलाते हैं।
उदाहरण – मनुष्य के हाथ, चीता के अगले पैर, चमगादड़ के पंख।
4. समवृत्ति अंग (अभिसारी विकास) –
– जन्तुओं में उपस्थित वे अंग जिनकी क्रियाएँ (कार्य) समान होती हैं, परन्तु उनका उद्गम व आन्तरिक संरचना में अन्तर होता है समवृत्ति अंग कहलाते हैं।
उदाहरण-
(i) कीटों के पंख, पक्षियों के पंख व चमगादड़ के पंख
(ii) मधुमक्खी व बिच्छु के डंक
(iii) मछलियों के पंख व व्हेल के फ्लिपर
(iv) कीटों की ट्रेकिया व कशेरुकों के फेफड़े
5. अवशेषी अंग –
– कम प्रयोग में लिए जाने के कारण धीरे-धीरे निष्क्रिय हो चुके अंग।
उदाहरण – मनुष्य में अपेंडिक्स
मनुष्य में तृतीय मोलर दाँत
नर में छाती के बाल।
– संयोजक कड़ियाँ –
i. पादप एवं जन्तु जगत की योजक कड़ी युग्लीना है।
ii. एनेलिडा व मोलस्का की योजक कड़ी नियोपिलिइना है।
iii. सरीसृप एवं पक्षियों की योजक कड़ी आर्कियोप्टेरिक्स है।
iv. मछली एवं उभयचर की योजक कड़ी लेटिमेरिया है।
v. कशेरुकी एवं अकशेरुकी की योजक कड़ी बैलेनोग्लोसस है।
vi. सरीसृप एवं स्तनियों की योजक कड़ी प्रोटोथीरिया है।
vii. एनेलिडा व आर्थोपोडा की योजक पेरिपैटस है।
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